प्रासंगिक (११ जनवरी, १९६७)

 

किसी शिष्यने यह शिकायत की कि कुछ

लोग माताजीका समय प्रायः व्यर्थके प्रश्नोंमें

नष्ट करते है और ज्यादा जरूरी दीखनेवाले

कामोंके लिये कम ही समय बचता है ।

 

  यह ऐसा ही होना चाहिये, क्योंकि यह ऐसा है ।

 

  शायद यह एक पाठ है (यह एक सूचना है), लेकिन इसका कुछ उद्देश्य है ।

 

  मुझे जो पाठ समझना चाहिये उसे मैं' समझनेकी कोशिश कर रही हू । मैं धीरज रखना सीख रही हू, ओह! कितना धीरज... हमेशा हां विद्रोह, अपमान आदि होते रहते है । ये मेरे लिये एकदम शून्यके समान है, ओर कमी-कभी ये बहुत मजेदार भी होते हैं । जब मैं स्वयं अपनी स्थितिमें, करुणाकी सच्ची स्थितिमें होती हू तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । यह ऊपरी सतहपर एक लहरी भी नहीं पैदा करता, कुछ भी नहीं ।

 

   कल मुझसे यह पूछा गया था, मुझसे पूछा गया था कि अपमान, अपमानित अनुभव करना, स्वमानका साधनामें कोई स्थान है । सचमुच इसके तनय कोई स्थान नहीं हेय, यह तो जानी हुई बात है! लेकिन मैंने इस गतिको देखा है, वह बहुत स्पष्ट थीं, मैंने देखा कि अहंकारके बिना, जब अहंकार न हों तब सत्ताके अंदर यह लहर नहीं रह सकती । मैं भूतकालमें काफी पीछे गयी, एक ऐसे समयमें जब मुझे यह चीज लगती थी (इसे बहुत वर्ष बीत गये), लेकिन अब यह किसी परायी चीजके रूपमें भी नहीं है अब यह असंभव है । मेरी सारी सत्ता, यहांतक कि शरीर भी यह नहीं समझ पाता कि यह चीज क्या है (यह अजीब बात है); यह वैसी दूरी चीज है जब भौतिक रूपमें कोई धक्का लगता है (माताजी अपनी कोहनीपर एक खेचर दिखाती हैं), उदाहरणके लिये, इस तरह, इससे अब ऐसा नेही लगता जैसा चोटसे लगता है, अब यह उस तरह नहीं लगता । बद्रुधा कुछ भी नहीं होता, यह दिखायी दिये बिना ही समग्रमें जा मिलता है, लेकिन जव कुछ लगता भी है तो वह केवल एक संस्कार होता है - अपने-आपको अनुभव करनेवाली किसी सहायताका, एक ऐसे पाठका जिसे सीखना है, एक बहुत अधिक कोमल, एक घनिष्ठ संस्कार । लेकिन वह ऐसा नहीं होता जैसा कि मानसिक रीतिसे होता है जिसमें हमेशा एक

 


खिंचाव-सा होता है; यह वैसी चीज नहीं होती । यह कुछ सीखनेके लिये अपने-आपको देनेवाली सत्ताके आत्म-निवेदनकी तरह होता है । मैं सभी कोषाणुओंकी बात कर रही हू । यह बहुत मजेदार होता है । स्पष्टतः, अगर तुम इसे मानसिक रूप दो तो तुम्हें यह कहना होगा कि यह सभी वस्तुओंमें भागवत सत्ताकी चेतना या प्रतीति है और इसकी पद्धति -- संपर्ककी पद्धति -- उस स्थितिपर निर्भर हैं जिसमें तुम हों ।

 

  हां, यह शरीरकी अनुभूति है ।

 

   और व्यक्तियोंमें, जब कमी धक्का लगे, या चोट लगे या कुछ ऐसा हों तो अहंकारका, अपने-आपको प्रकट करते हुए अहंकारका स्पष्ट दर्शाना होता है -- वे कहते है. ''यह दूसरा व्यक्ति है ।'' मेम यह न कहूंगी ''ओह! वह गुस्सेमें है,'' या ''यह व्यक्ति... '' नहिं, उसका अहंकार है; नहीं, उसका अहंकार मी नहीं, स्वयं अहंकार, अहंकार तत्व -- अहंकार तत्व जो अभीतक हस्तक्षेप करता है । यह बहुत मजेदार है क्योंकि अहंकार मेरे लिये एक प्रकारकी निर्वैयक्तिक सत्ता बन गया है, जब कि औरोंके लिये वह उनके व्यक्तित्वकी तीव्र अनुभूति होता है! उसकी जगह यह सत्ताकी एक प्रणाली है (तुम उसे पार्थिव या मानव कह सकते हो) जो यहां, वहां, उधर न्यूनाधिक मात्रामें हर एकको व्यक्तित्वकी भ्रांति देती है । यह बहुत मजेदार है ।

 

   हां, लेकिन मुश्किल यह है कि दूसरे लोग अपना पाठ नहीं सीखते, तब...

 

ओह! अगर वे पाठ सीख लेते तो सब कुछ जल्दीसे बदल जाता ।

 

   तो परिणाम यह है कि आपपर हमला होता है, आपको निगाल जाता है ।

 

असंभव !

 

  आपका सारा समय ले लिया जाता है, आपका सारा.

 

वे मुझे निगल नहीं सकते! (हंसते हुए) में बहुत बड़ी हू!

 

   फिर भी भौतिक दृष्टिसे आप अभिभूत हो जाती है ।

 

मैंने देखा है कि अगर मैं प्रतिरोध करुँ तो चीज बिगड़ जाती है । अगर मेरे अंदर तरलताका भाव हों तो टक्करें नहीं लगती । यह वही बात है जो इस खरोंचके बारेमें है (माताजी अपनी कोहनी दिखाती है) । अगर तुम कड़े हों जाओ और चीजें प्रतिरोध करें तो तुम्हें चोट लगती है । यह ऐसी ही बात है जैसे लोग गिरना जानते हैं चें गिरते हैं, और उनका कुछ भी नहीं टूटता; जब कि जो लोग गिरना नहीं जानते, वे जरा-सा गिरते ही कुछ तोड़फोड़ लेते हैं । यहां वही बात है । तुम्हें सीखना पड़ता है कि कैसे... पूर्ण ऐक्य । ठीक करना, सीधा करना, फिर भी यह प्रतिरोध है । तो तुम जिसे आक्रमण कहते हों वह जारी रहे तो क्या होगा? बात मजेदार होगी, देखे! (माताजी हंसती है), चुकी दूसरे लोग उसी स्थितिमें नहीं है, इसलिये वे शायद तंग आ जायंगे, परंतु मैं असहाय हू! (माताजी हंसती है) ।

 

  व्यक्तिको हमेशा हंसना चाहिये, हमेशा । प्रभु हंसते है और हंसते रहते है । उनका हास्य इतना अच्छा है, इतना अच्छा है, प्रेमसे इतना परिपूर्ण है । यह एक ऐसा हास्य है जो तुम्हें असाधारण मधुरताके साथ अपनी भुजाओंमें भर लेता है!

 

मनुष्योंने उसे भी विकृत कर दिया है -- उन्होंने हर चीज विकृत कर दी है । (माताजी हंसती है) ।

 

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